Tuesday, September 22, 2015

सूचना का अधिकार कानून अधिनियम 2005 की धारा 6 (1) के तहत भारतीय दंड सहिंता की धारा 498A और 406 के तहत अपराध और जाँच की केस डायरी और रोजनामच रपट की सत्यापित प्रतिलिपियों में सूचना लेने बाबत प्रारूप...



स्पीड पोस्ट
सूचना का अधिकार कानून अधिनियम 2005
                                                                                               
सेवा में ,
श्रीमान लोक सूचना अधिकारी जी,
अति. पुलिस उपायुक्त, जयपुर (पूर्व)

सन्दर्भ: श्रीमती GIRL   पत्नी BOY  
प्रथम सूचना रिपोर्ट क्रमांक:--/--              दिनांक  --/--/----

चार्ज शीट क्रमांक:--/--             दिनांक --/--/----

गांधी नगर महिला थाना, जयपुर (पूर्व)

विषय: सूचना का अधिकार कानून अधिनियम 2005 की धारा 6 (1) के तहत भारतीय दंड सहिंता की धारा 498A और 406 के तहत अपराध और जाँच की केस डायरी और रोजनामच रपट की सत्यापित प्रतिलिपियों में सूचना लेने बाबत।

महोदय,
         
उपरोक्त विषय अंतर्गत निवेदन है की मेरी पत्नी श्रीमती GIRL   पुत्री श्रीमान GIRL FATHER   जाति –ब्राह्मण निवासी- GIRL ADDRESS, जयपुर ने मेरे खिलाफ भारतीय दंड सहिंता की धारा 498A और 406 के तहत गांधी नगर महिला थाने में प्रथम सूचना रिपोर्ट दर्ज करवाया था। मैंने पुलिस के द्वारा बनाये गए दस्तावेजों और चार्ज शीट को पढ़लिया हैं और इसमें जाँच की प्रमाणिकता और अपराध की प्रमाणिकता का कोई सबूत व दस्तावेज नजर नहीं आ रहा हैं।
अतः आप निम्नलिखित सूचनाये दिलाने की कृपा करे।

A-   अभ्यार्थी का नाम: BOY    पुत्र  श्री BOY FATHER   
B-    पूरा पता : BOY ADDRESS, जयपुर - 302015
दूरभाष न: 93********


C- वांछित सूचनाओ का उल्लेख जो मुझे आपके द्वारा लेनी हैं:-
    कृपया मुझे मेरे (BOY) केस की केस डायरी और रोजनामच रपट की समस्त सत्यापित प्रतिलिपिया दिलवाये। (दिल्ली हाईकोर्ट के माननीय न्यायाधीश रविन्द्र भट्ट के फैसले की 8 पेजों की कॉपी क्रमांक  3114/2007 दिनांक 03-12-2007 सलग्न कर रहा हूँ, जिसमे अपील कर्ता भगत सिंह ने केंद्रीय सूचना आयोग के फैसले को चेलेंज किया था) अतः इससे आपको केस  डायरी और रोजनामच रपट की समस्त प्रतिलिपिया दिलवाने में आसानी होगी।
D- अदा किये गये शुल्क का उल्लेख:
      दस रुपये का शुल्क का भुगतान डाक घर जयपुर के द्वारा जारी किया गये भारतीय पोस्टल ऑर्डर  संख्या                 दिनांक               , लोक सूचना अधिकारी जी, अति. पुलिस उपायुक्त जयपुर (पूर्व) के प्रति किया गया हैं।
E- स्पष्टीकरण:- अतः ये सूचनाये प्रथम सूचना रिपोर्ट और चार्ज शीट के आधार पर जाँच अधिकारी के जाँच अधिकार छेत्र में आती हैं। किसी भी स्पष्ठिकरण के लीये मैं किसी भी समय आपकी सेवा में उपस्थित हो सकूँगा।
       अतः कृपया माँगी गयी सूचनाये सत्यापित प्रतिलिपियो के साथ आप अविलम्ब दिलावे।
धन्यवाद,

दिनांक:
स्थान:

भवदीय
अभ्यार्थी के हस्ताक्षर
संलग्न दस्तावेज:-
1.10 रु का पोस्टल आर्डर|
2.दिल्ली हाई कोर्ट के माननीय न्यायाधीश रविन्द्र भट्ट के फैसले की 8 पेजों की कॉपी क्रमांक  3114/2007 दिनांक 03-12-2007 सलग्न|

Wednesday, September 2, 2015

दहेज कानून और द.प्र.स. 41A की गुत्थी...



दहेज कानून और द.प्र.स. 41A की गुत्थी

दहेज से जुड़े एक मामले की सुनवाई करते हुए 2 जुलाई 2014 को सुप्रीम कोर्ट ने कुछ ऐसा कहा कि बहस का नया दौर शुरू हो गया। कोर्ट ने कहा कि दहेज प्रताड़ना सहित 7 साल तक की सजा के प्रावधान वाले मामलों में पुलिस केस दर्ज होते ही आरोपी को गिरफ्तार नहीं कर सकती। उसे गिरफ्तारी के लिए पर्याप्त कारण बताने होंगे। ऐसे मामले में अगर बिना पर्याप्त आधार के पुलिस गिरफ्तारी करती है तो उसके खिलाफ कार्रवाई हो सकती है।

जस्टिस सी. के. प्रसाद और पी. सी. घोष की बेंच ने अपने फैसले में कहा कि किसी की गिरफ्तारी सिर्फ इसलिए नहीं हो सकती कि मामला गैर जमानती व संज्ञेय है और पुलिस को ऐसा करने का अधिकार है। गिरफ्तारी का अधिकार एक अलग बात है और गिरफ्तारी का जस्टिफिकेशन दूसरी बात। सिर्फ आरोप के आधार पर रूटीन मैनर में गिरफ्तारी गलत है।

सुप्रीम कोर्ट ने दहेज प्रताड़ना के मामले में बड़ी संख्या में की जाने वाली गिरफ्तारी पर चिंता जाहिर करते हुए कहा कि पुलिस जब भी ऐसे मामले में गिरफ्तारी करे तो व्यक्तिगत आजादी और सामाजिक व्यवस्था के बीच बैलेंस जरूर रखे। अदालत का कहना है कि दहेज प्रताड़ना से जुड़ा मामला चूंकि गैर जमानती है, इसलिए कई बार लोग इसे हथियार बना लेते हैं, ताकि पति और उसके रिश्तेदारों को गिरफ्तार करवा सकें। अदालत ने कहा कि इस फैसले से हम सुनिश्चित करना चाहते हैं कि पुलिस बिना जरूरत के आरोपियों को गिरफ्तार न करे।
कब गिरफ्तारी, कब नहीं
सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि सीआरपीसी की धारा-41 में गिरफ्तारी के अधिकार बताए गए हैं।
सीआरपीसी की धारा-41  में गिरफ्तारी से पहले इन बातों की संतुष्टि जरूरी है :
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पुलिस जब आरोपी को मैजिस्ट्रेट के सामने पेश करे तो बताए कि गिरफ्तारी क्यों जरूरी थी।
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अगर पुलिस को लगे कि आरोपी दोबारा क्राइम कर सकता है तो गिरफ्तारी हो सकती है।
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अगर पुलिस को लगे कि आरोपी गवाहों को धमका सकता है या फिर साक्ष्यों को प्रभावित कर सकता है तो गिरफ्तारी हो सकती है।

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अगर पुलिस को लगे कि छानबीन के लिए गिरफ्तारी करना जरूरी है तो गिरफ्तारी हो सकती है।
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अगर आरोपी की गिरफ्तारी नहीं होती है तो पुलिस दो हफ्ते में मैजिस्ट्रेट को ऐसा न होने का कारण बताए।
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अगर बिना कारण आरोपी को हिरासत में रखा जाता है तो संबंधित मैजिस्ट्रेट के खिलाफ हाई कोर्ट ऐक्शन लेगी।
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अगर पुलिस इन निर्देशों का पालन नहीं करती तो संबंधित पुलिस कर्मी के खिलाफ डिपार्टमेंटल ऐक्शन के साथ-साथ अदालत की अवमानना की कार्रवाई भी होगी।




बस 15 फीसदी में सजा!
दहेज प्रताड़ना मामले में सजा का दर काफी कम है। ज्यादातर मामले में आरोपी बरी हो जाते हैं। ऐसे में सुप्रीम कोर्ट की कुछ टिप्पणियां काफी अहम हैं :

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दहेज प्रताड़ना यानी 498 ए कानून इसलिए बनाया गया कि महिलाओं को प्रताड़ना से बचाया जा सके, लेकिन यह मामला चूंकि गैर जमानती और संज्ञेय है इसलिए कई बार लोग इसे गिरफ्तारी का हथियार बना लेते हैं।
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कई मामलों में तो बिस्तर पकड़ चुके पति के दादा-दादी और विदेश में रहने वाली बहन तक को निशाना बनाया जाता है।
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के आंकड़ों पर नजर डाली जाए तो देश भर में धारा-498 ए के तहत 1 लाख 97 हजार लोग गिरफ्तार हुए और यह 2011 के आंकड़ों से ज्यादा है।

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इनमें 93 फीसदी मामलों में चार्जशीट भी हुई, लेकिन सिर्फ 15 फीसदी मामलों में ही सजा हो पाई है।
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पेंडिंग केसेज की बात की जाए तो दहेज प्रताड़ना से संबंधित 3 लाख 72 हजार केस पेंडिंग हैं।
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कानून बनाने वालों और पुलिस के बीच हमेशा आरोपियों के मानवाधिकारों को लेकर तकरार चलती रही है, लेकिन पुलिस सबक नहीं लेती।

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आजादी के 6 दशक बाद भी पुलिस औपनिवेशिक काल की मानसिकता से बाहर नहीं निकल पाई है। पुलिस पहले गिरफ्तारी करती है और फिर आगे की कार्रवाई करती है, जो सही नहीं है।
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लॉ कमिशन, पुलिस कमिशन और कोर्ट कई बार यह व्यवस्था दे चुके हैं कि व्यक्तिगत आजादी और सामाजिक व्यवस्था में संतुलन जरूरी है।

दहेज और कानून
दहेज से जुड़े मामलों में इन कानूनों का बहुत महत्वपूर्ण रोल होता है :

दहेज निरोधक कानून 1961 (Dowry Prohibition Act, 1961)
- 1961
में दहेज निरोधक कानून बना और यह रिफॉर्मेटिव कानून है, यानी समाज को दहेज जैसी कुरीतियों को खत्म करने के लिए यह कानून बनाया गया।
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दहेज निरोधक कानून की धारा-8 कहती है कि दहेज देना और लेना संज्ञेय अपराध है।

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दहेज देने के मामले में धारा-3 के तहत मामला दर्ज हो सकता है और जुर्म साबित होने पर कम से कम 5 साल कैद का प्रावधान है। मिसाल के तौर पर पटियाला हाउस कोर्ट ने मार्च, 2010 में दहेज देने के मामले में लड़की और उसके परिजनों के खिलाफ एफआईआर दर्ज करने का निर्देश दिया था। इससे पहले लड़की ने अपने पति के खिलाफ दहेज प्रताड़ना का केस दर्ज कराया था और आरोप लगाया था कि शादी से पहले ही लड़के वालों ने कपड़े, गाड़ी और कैश की डिमांड की थी। इसी को आधार बनाकर लड़के वालों ने लड़की के परिजनों के खिलाफ गुहार लगाई।

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धारा-4 के मुताबिक दहेज की मांग करना जुर्म है। शादी से पहले अगर लड़का पक्ष दहेज की मांग करता है, तब भी इस धारा के तहत केस दर्ज हो सकता है। दहेज प्रताड़ना कानून यानी 498 ए (Dowry Harassment Law, 1983 )1983 में आईपीसी में बदलाव करके धारा-498 ए (दहेज प्रताड़ना) प्रावधान किया गया। इसके तहत दहेज के लिए पत्नी को प्रताड़ित करने पर पति और उसके रिश्तेदारों के खिलाफ कार्रवाई का प्रावधान किया गया है। प्रताड़ना में मानसिक (दहेज को मसला बना कर मायके वालों से मिलने या बात न करने देना), मनोवैज्ञानिक (दहेज के मसले पर तरह-तरह के ताने देना) और शारीरिक तीनों शामिल हैं।

दहेज प्रताड़ना में कितनी सजा 
दहेज प्रताड़ना का मामला गैर जमानती है और यह संज्ञेय अपराध की श्रेणी में रखा गया है। इस मामले में दोषी पाए जाने पर अधिकतम 3 साल कैद की सजा का प्रावधान किया गया है। दहेज हत्या यानी 304 बी (Dowry Death Law, 1986)1986 में धारा-304 बी (दहेज हत्या) का प्रावधान किया गया।

आईपीसी की धारा-304 बी के तहत प्रावधान है कि अगर महिला की मौत शादी से 7 साल के अंदर जलने, मारपीट, किसी भी रहस्यमय या असामान्य परिस्थिति में होती है और मौत से पहले महिला को दहेज के लिए प्रताड़ित किया गया हो तो प्रताड़ित करने वालों के खिलाफ दहेज हत्या का केस बनता है। एविडेंस ऐक्ट की धारा-113 बी के तहत पति और रिश्तेदारों को आरोपी मान लिया जाता है।

दहेज हत्या में कितनी सजा
दहेज हत्या का मामला भी गैर जमानती और संज्ञेय अपराध है और इस मामले में दोषी पाए जाने पर मुजरिम को कम के कम 7 साल और अधिकतम उम्रकैद की सजा का प्रावधान है। अमानत में खयानत यानी धारा-406 (Criminal Breach of justice) दहेज प्रताड़ना की शिकायत पर पुलिस 498 ए (दहेज प्रताड़ना कानून) के साथ-साथ धारा-406 (अमानत में खयानत) का भी केस दर्ज करती है। लड़की का स्त्रीधन अगर उसके ससुराल वालों ने अपने पास रख लिया है तो अमानत में खयानत का मामला बनता है।

अमानत में खयानत मामले में कितनी सजा
अमानत में खयानत के मामले में दोषी पाए जाने पर अधिकतम 3 साल कैद की सजा का प्रावधान किया गया है। साथ ही यह मामला भी संज्ञेय और गैर जमानती है।

इन्हें समझना है जरूरी

क्या है स्त्रीधन 
शादी के समय जो उपहार और जेवर लड़की को दिए गए हों, वह स्त्रीधन कहलाता है। इसके अलावा लड़के और लड़की दोनों को कॉमन यूज के लिए जो फर्नीचर, टीवी और दूसरी चीजें दी जाती हैं, उसे भी स्त्रीधन के दायरे में रखा जाता है और उस पर लड़की का पूरा अधिकार है और वह दहेज के दायरे में नहीं आता। लड़की को आशीर्वाद के तौर पर दिया जाने वाला कोई भी सामान स्त्रीधन ही कहा जाएगा। इतना ही नहीं, शादी के दौरान लड़की के ससुराल पक्ष से भी जो उपहार या जूलरी लड़की को दी जाती है, वह भी स्त्रीधन कहा जाता है। अगर लड़की से उसका स्त्रीधन लेकर कोई जबरन अपने पास रखता है तो ऐसे मामले में अमानत में खयानत का केस दर्ज किए जाने का प्रावधान है।

क्या है दहेज सामग्री 
स्त्रीधन के अलावा शादी के वक्त लड़के को दी जाने वाली जूलरी, कपड़े, गाड़ी, कैश और अन्य जो भी दिया जाता है, वह दहेज कहलाता है। कानून कहता है कि जब भी शादी के एवज में लड़के के घर वाले लड़की के घर वालों से कैश, सामान आदि की डिमांड करते हैं तो वह दहेज माना जाता है। इन चीजों को लेकर अगर लड़की को शादी के बाद परेशान किया जाता है तो ऐसे मामले में दहेज प्रताड़ना का केस दर्ज होता है।

पति के रिश्तेदार कौन-कौन ? 
पति के उन रिश्तेदारों के खिलाफ ही दहेज हत्या के तहत मामला बन सकता है, जो ब्लड रिलेशन जैसे पैरंट्स, भाई, बहन आदि या गोद लिए गए रिलेशन (पिता की गोद ली हुई संतानें) या फिर शादी के रिलेशन (जीजा, भाभी) में आते हों। सुप्रीम कोर्ट ने 2 जुलाई, 2014 को व्यवस्था दी है कि दहेज हत्या के मामले में पति के रिश्तेदार का मतलब ब्लड, शादी और गोद लिए गए रिलेशन से है। हालांकि सुप्रीम कोर्ट ने साफ किया कि इसका मतलब यह नहीं है कि आत्महत्या के लिए उकसाने जैसे मामले में ऐसे लोगों के खिलाफ मामला नहीं बन सकता।

कोर्ट की टिप्पणियों में दहेज कानून

'
हर आत्महत्या दहेज की मांग का कारण नहीं' 
कोर्ट - दिल्ली हाई कोर्ट
वक्त - दिसंबर, 2010
जज - जस्टिस शिव नारायण ढ़ींगड़ा

कोर्ट ने कहा कि ससुराल में महिला की आत्महत्या का मामला हमेशा दहेज की मांग के कारण नहीं माना जा सकता। अदालत की यह आदत नहीं होनी चाहिए कि जब भी किसी दुल्हन की मौत हो, तो किसी न किसी को इसके लिए जिम्मेदार ठहराया जाए। दहेज हत्या के मामले में मृतका की सास को बरी करते हुए जस्टिस शिव नारायण ढींगड़ा ने यह टिप्पणी की थी।

जज ने कहा कि ज्यादातर ट्रायल जज अंपायर की तरह बने रहते हैं, जबकि उन्हें पूरा अधिकार है कि वे अदालत में गवाह से सवाल पूछें। अक्सर देखा जाता है कि जज कोई सवाल ही नहीं करते। गवाह सब कुछ वकील पर छोड़ देता है और जज सिर्फ दर्शक बने रहते हैं। हाई कोर्ट ने कहा, 'जजों की अंपायर वाली प्रवृति का खामियाजा आर्थिक तौर पर ऐसे कमजोर लोग भुगतते हैं, जो बड़े वकील नहीं रख सकते।'

'
दहेज प्रताड़ना का केस समझौतावादी होना चाहिए'
कोर्ट : दिल्ली हाई कोर्ट
वक्त : 2003
जज : जस्टिस जे. डी. कपूर

दिल्ली हाई कोर्ट के तत्कालीन जस्टिस जे. डी. कपूर ने अपने फैसले में कहा कि ऐसी आदत जन्म ले रही है, जिसमें कई बार लड़की न सिर्फ अपने पति बल्कि उसके तमाम रिश्तेदार को ऐसे मामले में लपेट देती है। एक बार ऐसे मामले में आरोपी होने के बाद जैसे ही लड़का और उसके परिजन जेल भेजे जाते हैं, तलाक का केस दायर कर दिया जाता है। इसका असर यह हो रहा है कि तलाक के केस बढ़ रहे हैं।

अदालत ने कहा था कि धारा-498 ए (दहेज प्रताड़ना) से संबंधित मामलों में अगर कोई गंभीर चोट का मामला न हो तो उसे समझौतावादी बनाया जाना चाहिए। अगर दोनों पार्टी अपने विवाद को खत्म करना चाहते हैं तो उन्हें समझौते के लिए स्वीकृति दी जानी चाहिए। धारा-498 ए का दुरुपयोग शादी की बुनियाद को हिला रहा है और समाज के लिए यह अच्छा नहीं है।

'
दहेज कानून लीगल टेररेज़म जैसा'
कोर्ट - सेशन कोर्ट, नई दिल्ली
वक्त - मई, 2013
जज - कामिनी लॉ

दहेज उत्पीड़न से जुड़े कानून का इन दिनों जबर्दस्त दुरुपयोग हो रहा है। कई बार धारा-498ए के जरिए उगाही तक की जाती है। कोर्ट को पता है कि यह लीगल टेररेज़म की तरह है।' यह टिप्पणी अदालत ने दहेज उत्पीड़न के एक मामले में सास, ससुर, ननद, देवर और देवर की महिला फ्रेंड को आरोपमुक्त करते हुए की। कोर्ट ने कहा कि सुप्रीम कोर्ट ने इसके दुरुपयोग को देखते हुए इसे लीगल टेररेज़म कहा था।

कोर्ट ने कहा कि शिकायतकर्ता महिला शादी के बाद 12 दिन ही ससुराल में रही और इस दौरान उसने सभी को फंसाने की कोशिश की। उसने देवर की महिला दोस्त को भी नहीं छोड़ा। भला देवर की दोस्त दहेज के लिए कैसे इंट्रेस्टेड हो सकती है। जज ने कहा कि यह कोर्ट की ड्यूटी है कि वह सुनिश्चित करे कि पति की गलती के कारण उसके रिश्तेदारों को न फंसाया जा सके।

'
दुल्हन के परिजनों पर भी चले केस'
कोर्ट - सेशन कोर्ट, रोहिणी नई दिल्ली
वक्त - जून, 2010
जज - कामिनी लॉ

जून, 2010 में दिल्ली की एक अदालत ने कहा था कि दहेज लेने-देने के मामले में दुल्हन के परिवार के खिलाफ भी उसी तरह मुकदमा चलाया जाना चाहिए, जैसे दूल्हे के परिवार के खिलाफ चलाया जाता है। ऐसे ही यह सामाजिक बुराई खत्म हो सकेगी। जज ने फैसले में कहा कि दहेज दोतरफा है, जब तक कोई देने वाला न हो, लेने वाला नहीं होगा।

इस सामाजिक बुराई को खत्म करने के लिए दहेज लेने और देने वाले, दोनों को जिम्मेदार ठहराना होगा। यह संभव नहीं है कि एक के खिलाफ केस दर्ज हो और दूसरे के खिलाफ नहीं। कोर्ट ने कहा कि शादी से पहले और बाद में रिश्तेदारों के दिए महंगे गिफ्ट की सूचना अधिकारियों को दी जानी चाहिए, ताकि उन पर टैक्स लगाया जा सके। यह जरूरी है कि जिसने दहेज दिया है, उनकी कमाई के जरिए की जांच हो।

एक्सपर्ट्स पैनल:
केटीएस तुलसी, सीनियर ऐडवोकेट
जस्टिस एस. एन. ढींगड़ा, रिटायर्ड जज, हाई कोर्ट
नवीन शर्मा, सरकारी वकील हाई कोर्ट
कमलेश जैन, ऐडवोकेट, सुप्रीम कोर्ट
रेखा अग्रवाल, क्रिमिनल लॉयर